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वेदांगों की सम्पूर्ण जानकारी । Complete information about Vedangas । vedango ka parichay । वेदांगों का परिचय ।

वेदांगों की सम्पूर्ण जानकारी

Complete information about Vedangas

 

वेदांग किसे कहते हैं ? What is weedang ?

वेद इस सृष्टि के सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं । वेदों के गूढ अर्थ को समझना सरल कार्य नहीं है । वेदों की भाषा, पाठ, भाव, अर्थ और यज्ञों की मीमांसा को समझने के लिए कुछ अंगों की आवश्यकता होती हैं, जिन्हे वेदांग कहते हैं । वेदांग शब्द का सामान्य अर्थ है वेदों के अंग । वेदांग शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- वेद + अंग = वेदांग । अंग का अर्थ है- “अङ्गयन्ते ज्ञायन्ते अमीभिरिति अङ्गानि” अर्थात् जिनसे किसी वस्तु के स्वरूप को जानने में सहायता मिलती है, उनको अंग कहते हैं । अत: वेदों को समझने के लिए जिन शास्त्रों की आवश्यकता होती है, उन्हें वेदांग कहते हैं । जैसे मनुष्य के शरीर में अनेक अंग हैं, जो अनेक कार्यों में सहयोग करते हैं- कान सुनने के लिए, आँख देखने के लिए, नाक सूंघने के लिए आदि । इसी प्रकार से वेदों को समझने के लिए वेदांग हैं ।

इस पोस्ट में वेदांगो की सम्पूर्ण जानकारी (vedango ki sampurn jankari) प्रदान की गई है । पोस्ट के आरम्भ वेदांगो का परिचय (Vedango ka parichaya) कराया गया है । आइये वेदांगों से परिचित होते हैं-

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          वेदांगों के बारे में सायणाचार्य का कथन- 'अतिगम्भीरस्य वेदस्य अर्थम् अवबोधयितुं शिक्षादीनि षडङ्गानि प्रवृत्तानि । अर्थात् वेदों के अत्यन्त गम्भीर अर्थ को समझने के लिए शिक्षा आदि छः अंग हैं । सामान्यतः वेदांग साहित्य की उत्त्पति उपनिषद् काल के समकक्ष ही हुई । उपनिषदों में ज्ञान का मार्ग दो प्रकार का है- 1. श्रेय 2. प्रेय । श्रेय मार्ग में अविनाशी ब्रह्म ज्ञान की दीक्षा मिलती है जबकि प्रेय मार्ग में वेद-वेदांग का निरुपण मिलता है । श्रेय विद्या को परा विद्या व प्रेय विद्या को अपरा विद्या भी कहते हैं । सर्वप्रथम मुण्डकोपनिषद् में अपरा विद्या के अन्तर्गत चारों वेदों के बाद वेदों के छः अंगों का नमोल्लेख किया गया है-

“द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ।

तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेद:शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति ॥”


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Complete information about Vedangas
Vedang


वेदांग कितने हैं –

How many are wedang-

 

वेदांगों की संख्या छः है । अनेक विद्वानों के मत में इनके क्रम में भिन्नता अवश्य है परन्तु छः अंग सभी ने समान स्वीकारे हैं । सर्वप्रथम मुण्डकोपनिषद् में अपरा विद्या के अन्तर्गत चारों वेदों के बाद वेदों के छः अंगों का नमोल्लेख किया गया है-

“द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ।

तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेद:शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति ॥”

पाणिनीय शिक्षा में छः अंग कुछ इस क्रम में बताए गए हैं-

शिक्षा कल्पो व्याकरणं, निरुक्तं छन्दसोचमः ।

ज्योतिषामयनं चैव, वेदाङ्‌गानि षडेव तु ।।

1. शिक्षा       2. कल्पः       3. व्याकरणं   4. निरुक्तं      5. छन्दः        6. ज्योतिषम्

 

पाणिनीय शिक्षा में इन वेदांगो शरीर के अंगों के रूप में दर्शाया गया है-

छन्दः पादौ तु वेदस्य, हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते ।

ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोतमुच्यते ।

शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य, मुखं व्याकरणं स्मृतम् ।

तस्मात् साङ्गमधीत्यैव, ब्रहमलोके महीयते ॥

     अर्थात् वेद के पैर छन्द हैं, वेद के हाथ कल्प हैं, वेद के नयन ज्योतिष है, वेद के कान निरुक्त है, वेद की नाक शिक्षा है और वेद का मुख व्याकरण है ।

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अब क्रम से वेदांगो के बारे में समझते हैं-

 

1. शिक्षा- Shiksha

 

#  “शिक्ष्यते वर्ण-स्वराद्युच्चारणविधिः यया सा शिक्षा” “स्वरवर्णाद्युच्चारनप्रकारो यत्र शिक्ष्यते उपदिश्यते सा शिक्षा” अर्थात् जो स्वर वर्ण आदि के शुद्ध उच्चारण के प्रकार की शिक्षा देती (ज्ञान कराती) है उसे शिक्षा कहते हैं । शिक्षा को वेदपुरुष की नाक कहते हैं । वेदों में स्वरों का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है । किस प्रकार से वर्णों का उच्चारण करना चाहिए ? वर्णों का उचारण स्थान क्या है ?  कौन सा यत्न है ? आदि ।

         

# तित्तिरीयोपनिषद् में शिक्षा के छ: अंग बताए गए हैं-

“वर्णः स्वर: मात्रा बलम् सामः सन्तान: इत्युक्तः ।”

1. वर्ण 2. स्वर 3. मात्रा 4. बल 5. साम  6.सन्तान ।

         

क्रम से सभी के बारे में समझते हैं-

1. वर्णः- “वर्णोऽकारादि” अकार आदि अक्षरों को वर्ण कहते हैं ।

2. स्वरः- “उदात्तदि स्वर:”  उदात, अनुदात और स्वरित ये स्वर हैं ।

3. मात्रा- “मात्रा ह्रस्वः, द्वे दीर्घः, तिस्रः प्लुत उच्यते” स्वरों के उच्चारण में लगने वाले समय को मात्रा कहते हैं । ये तीन हैं- ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत ।

4. बलम्- “वर्णानाम् उच्चारणस्थानानि प्रयत्नानि च बलम्” वर्णों के उच्चारण स्थान व प्रयत्न को बल कहते हैं ।

5. सामः- “वर्णाणां दोष-रहितं माधुर्यादि-गुण-समन्वितं शुद्धोच्चारणं सामः” वर्णों के दोष रहित व शुद्ध मधुर्यादि गुणों से समन्वित उच्चारण को साम कहते हैं ।

6.सन्तानः- “सन्तानस्य अर्थोऽस्ति संहिता, पदानाम् अतिशय-सन्निधिरेव संहिता” सन्तान का अर्थ है संहिता । पदों की अतिशय सन्निधि को संहिता कहते हैं ।

 

 

वेदों के शिक्षा ग्रन्थ-

ऋग्वेद – पाणिनीय शिक्षा

शुक्ल यजुर्वेद- याज्ञवल्क्य शिक्षा

कृष्ण यजुर्वेद- व्यास शिक्षा

सामवेद- नारदीय शिक्षा

अथर्ववेद- माण्डूकी शिक्षा

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2. कल्प- Kalpa

 

# कल्पो वेदविहितानां कर्मणामनुपूर्वेण कल्पनाशास्त्रम् । अर्थात् वेद विहित कमों की क्रमपूर्वक व्यवस्थित कल्पना करने वाले शास्त्रको कल्प कहते हैं ।

# “कल्प्यन्ते समर्थ्यन्ते यज्ञ-यागादिप्रयोगा: यत्र इति कल्प:” अर्थात् जिन ग्रन्थों में मज्ञ के प्रयोगों की कल्पना या समर्थन किया जाए, उन्हे कल्प कहते हैं । 

# सूत्र का अर्थ है संक्षेप- “अल्पाक्षरत्वे सति बह्वर्थबोधकत्वं सूत्रत्वम् ।”

# कल्पसूत्र का अर्थ है- यज्ञ-यागादि के नियमों का संक्षेप में कथन ।

 

कल्पसूत्रों की संख्या-

1. श्रोतसूत्र    2. गृह्यसूत्र     3. धर्मसूत्र     4. शुल्वसूत्र ।

 

1. श्रोतसूत्र-

श्रोतसूत्रों का वर्ण्य विषय ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रतिपादित श्रोत अग्नि में सम्पन्न होने वाले वैदिक यज्ञों के विधि विधानों को सूत्र रूप में संकलित करना है । वेदों में प्रतिपादित अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, चातुर्मास्य, सौत्रामाणि आदि यज्ञों का क्रमपूर्वक सूत्ररूप में वर्णन करने के कारण इन्हे श्रोतसूत्र हैं ।

 

चारों वेदों के श्रोतसूत्र-

 

ऋग्वेद

1. आश्वलायन

2. शांखायन

शुक्ल यजुर्वेद

1. कात्यायन

कृष्ण यजुर्वेद

1. बौधायन

2. आपस्तम्ब

3. हिरण्यकेशि

4. वैखानस

5. भारद्वाज

6. मानव

सामवेद

1. आर्षेय

2. लाट्यायन

3. द्राह्यायण

4. जैमिनीय

अथर्ववेद

1. वैतान

 

 

2. गृह्यसूत्र-

 गृह्यसूत्रों में गृह्य अग्नि में सम्पन्न होने वाले यागों का तथा पुंसवन, जातकर्म, नामकरण आदि संस्कारों का वर्णन किया गया है । गार्हस्थ्य जीवन से सम्बद्ध धार्मिक अनुष्ठानों आचार-विचारों तथा गृह्य यज्ञों का सूत्र रूप में विवेचन के कारण इन्हें गृह्यसूत्र कहा जाता है ।

 

चारों वेदों के गृह्यसूत्र-

ऋग्वेद

1. आश्वलायन

2. शांखायन

शुक्ल यजुर्वेद

पारस्कर

कृष्ण यजुर्वेद

1. बौधायन

2. आपस्तम्ब

3. हिरण्यकेशि

4. वैखानस

5. भारद्वाज

6. मानव

7. अग्निवेश्य

8. वाराह

9. काठक

सामवेद

1. गोभिल

2. खादिर

3. जैमिनीय

अथर्ववेद

1. कौशिक

 

 

3. धर्मसूत्र-

धर्मसूत्रों में अनुष्ठानों के आकार-प्रकार पर बल दिया गया है । धर्मसूत्रों में आचार-विचार, कर्तव्य, कर्म व्यवहार राजधर्म आदि का विवेचन किया गया है । धर्म का विवेचन ही धर्मसूत्र है । धर्मसूत्र ही मनु आदि स्मृतियों तथा हिन्दुओं के कानून ग्रन्थ हैं ।

 

चारों वेदों के धर्मसूत्र-

ऋग्वेद

1. वशिष्ठ धर्मसूत्र

शुक्ल यजुर्वेद

1. हरीत

कृष्ण यजुर्वेद

1. बौधायन

2. आपस्तम्ब

3. हिरण्यकेशि

4. वैखानस

5. विष्णु

सामवेद

1. गौतम

अथर्ववेद

कोई नहीं

 

4. सुल्वसूत्र-

सुल्व का अर्थ है 'मापने की रस्सी’ । रस्सियों से नापकर यज्ञस्थान और वेदियों की निर्माण विधि ही शुल्वसूत्रों का प्रतिपाय विषय है । शुल्वसूत्रों को भारतीय ज्यामितिशास्त्र अथवा रेखा गणित का सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ माना जाता है ।

 

चारों वेदों के शुल्वसूत्र -

ऋग्वेद

कोई नहीं

शुक्ल यजुर्वेद

1. कात्यायन

कृष्ण यजुर्वेद

1. बौधायन

2. आपस्तम्ब

3. मानव

4. मैत्रायणीय

5. वाराह

6. बाधूल

सामवेद

कोई नहीं

अथर्ववेद

कोई नहीं

 

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3. व्याकरण- Vyakarana

 

“व्याक्रियन्ते विविच्यन्ते शब्दा अनेनेति शब्दज्ञानजनकं शास्त्रं व्याकरणम्” जिसके द्वारा पदों के प्रकृति-प्रत्यय का विवेचन किया जाता है, उसे व्याकरण कहते हैं । व्याकरण शब्द कृ धातु के पूर्व वि और आङ् उपसर्ग और ल्युट् प्रत्यय के योग से बनता है । व्याकरण के वेद मुख के रूप में स्वीकारा गया है ।

ऋग्वेद के अनुसार-

चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य ।

त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्यां आविवेश ।। ऋग्वेद – 4/58/6

अर्थात् व्याकरण शास्त्र एक वृषभ रूप में बांधा गया है, इस वृषभ के चार सींग है- नाम, आख्यात, उपसर्ग व निपात ।  वर्तमान, भूत व भविष्य तीन काल इसके पैर हैं । सुप् व तिङ्‌ रूप इसके दो सिर हैं । सातों विभक्तियाँ इसके साथ हाथ हैं । यह वृषभ उर, कंठ और सिर इन तीनों स्थानों से बंधा हुआ शब्द करता है । यह महान देव मनुष्यों के शरीर में प्रवेश किए हुए है ।

 

# महर्षि पतंजाल ने महाभाष्य के पश्पशानिक में व्याकरण के प्रमुख 5 प्रयोजनों का उल्लेख किया है-

 “रक्षोहागमलध्वसन्देशहाः प्रयोजनम्” ।

1. रक्षा         2. ऊह          3. आगम       4. लघुअ       5. असन्देह ।

 

# सम्प्रति व्याकरण वेदांग क प्रतिनिधित्व करने वाला एकमात्र ग्रन्थ पाणिनि व्याकरण है । इसमें आठ अध्याय है, अत: इसे 'अष्टाध्यायी' कहते हैं ।

# अष्टाध्यायी के प्रत्येक अध्याय मे चार-चार पाद हैं । प्रत्येक पाद सूत्रों में विभक्त है ।

# प्रथम व द्वितीय अध्याय में संज्ञा व परिभाषा सम्बन्धी सूत्र हैं ।

# तृतीय से पंचम अध्याम तक कृदन्त व तद्धित प्रत्ययों का वर्णन है । 

# षष्ठ अध्याय में द्वित्व, सम्प्रसारण, सन्धि,स्वर, आगम, लोप, दीर्घ इत्यादि से सम्बंधित सूत्र हैं ।

# सप्तम अध्याय में अङ्गाधिकार प्रकरण है ।

# अष्टम अध्याय में द्वित्व, प्लुत, णत्व, यत्व इत्यादि के नियम वर्णित हैं ।

# इस ग्रन्थ को अष्टक, अष्टाध्यायी, शब्दानुशासन वृत्तिसूत्र भी कहते हैं ।

 # पाणिनि की अष्टाध्यायी, कात्यायन के वार्तिक और पतंजलि के महाभाष्य इन तीनों को मिलाकर “त्रिभुनि व्यकिरण” कहते हैं ।

 # भट्टोजिदीक्षित ने प्रक्रिया के अनुसार सिद्धान्तकौमुदी की रचना की है ।

#  दर्शन प्रधान व्याकरणशास्त्र के रूप में भर्तृहर रचित “वाक्यपदीयम्” ग्रन्थ अमूल्य है ।

# वरदराजाचार्य ने “मध्यसिद्धान्त कौमुदी” व “लघुसिद्धान्त कौमुदी” की रचना की ।

 

 

4. निरुक्त- Nrukta


# निरूक्त को वेद का कान कहा जाता है ।

# सायणाचार्य के अनुसार-

“अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्” अर्थात् अर्थ ज्ञान के लिए स्वतन्त्र रूप से जहाँ पदों का समूह कहा गया हैं, वही निरुक्त है ।

# निरुक्त निघण्टु का भाष्य है । इसके अन्तर्गत निघण्टु में गिनाए गए वैदिक शब्दों की व्याख्या की गई है ।

# यास्क को निरुक्तकार स्वीकारा जाता है ।

#  निघण्टु में कुल पांच अध्याय हैं-

# प्रारम्भिक तीन अध्यायों को नैघण्टुक काण्ड, चौधे अध्याय को नैगमकाण्ड तथा पांचवे अध्याय को दैवतकाण्ड के नाम से जाना जाता है । 

# निरुक्त ग्रन्थ चौदह अध्यायों में विभक्त है । जिसमे अंतिम दो अध्याय परिशिष्ट के रूप में हैं । 

# महर्षि यास्क ने बारह निरुक्तकारों के नाम तथा उनके मत निर्दिष्ट किए हैं ।

#  दुर्गाचार्य ने अपनी टीका दुर्गवृत्ति में चौदह निरुक्तकारों को उल्लेख किया है ।

# सम्पति यास्करचित निरुक्त ही वेदांग का प्रतिनिधि ग्रन्थ है ।

 

# यास्क रचित निरुक्त में नाम, आध्यात, उपसर्ग, निपात रूप चतुर्पदों का लक्षण, भाविकारलक्षण, पद विभाग परिज्ञान, देवता परिज्ञान, अर्थप्रशंसा, वर्णलोप, वर्ण विपर्यय विवेचन, सम्प्रसार्य व असम्प्रसार्य धातु, अभिशाप, अभिज्ञा, परिवेदना निन्दा, प्रशंसा आदि द्वारा मन्त्राभिव्यक्ति, उपदेश व देवताओं का वर्गीकरण किया गया है । 

# इस ग्रन्थ में वैदिक शब्द निर्वचन के अतिरिक्त भाषाविज्ञान साहित्य, समाजशास्त्र व ऐतिहासिक विषयों का भी प्रसंगानुकूल विवेचन मिलता है ।

 

 

5. छन्द- Chhand

 

# वैदिक मन्त्रों के सम्यक उच्चारण व भाव बोधन हेतु छन्दों का ज्ञान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।

# निरुक्तकार यास्क के अनुसार छन्द शब्दकी व्युत्पत्ति 'छद्' धातु से हुई है । जिसका अर्थ है "आच्छादित करना ।

# वैदिक साहित्य में गद्य-पद्य सभी को छन्द से युक्त माना गया है ।

# वैदिक छन्दों में पाद संख्या निश्चित नहीं होती है । कुछ छन्द एक पाद के होते हैं, कुछ दो पाद के कुछ तीन पाद के व कुछ चार पाद के होते हैं ।

# वैदिक छन्दों में लघु-गुरु का कोई विशेष नियम नहीं है । वैदिक छन्द अक्षरगणना पर आधारित होते हैं । 

# कात्यायन ने भी कहा है- “यदक्षरपरिमाणं तच्छन्दः ।”

# यदि एक या एक से अधिक अक्षर कम या ज्यादा होते हैं तो छन्द नहीं बदलता है, अपितु उसकी संज्ञा बदल जाती है ।

# यदि किसी छन्द में एक अक्षर कम हो तो उसे ‘निचृत्’ कहते हैं , यदि किसी छन्द में एक अक्षर अधिक हो तो उसे ‘भूरिक्’ कहते हैं, यदि किसी छन्द में दो अक्षर कम हों तो उसे ‘विराट्’ कहते हैं और यदि किसी छन्द में दो अक्षर अधिक हों तो उसे ‘स्वराट्’ कहते हैं । 

# जैसे गायत्री छन्द मे चौबीस अक्षर होते हैं, यदि एक अक्षर कम है तो उसे ‘निचृत् गायत्री ’ कहते हैं । यदि गायत्री छन्द में एक अक्षर ज्यादा है तो उसे ‘भूरिक् गायत्री’ कहते हैं । यदि दो अक्षर कम हैं तो उसे 'विराट् गायत्री' कहते हैं और दो अक्षर ज्यादा होने पर उसे ‘स्वराट् गायत्री’ कहते हैं ।

# छन्द  वेदांग का प्रतिनिधि ग्रन्थ 'छन्दः सूत्र' है । इसके प्रणेता पिङ्गलाचार्य हैं । 

#  इस ग्रन्थ में प्रतिपादित समस्त छन्दोविचार  “यमाताराजभानसलगम्” इस सूत्र में निहित है । 

#  छन्द सूत्र ग्रन्थ आठ अध्यायों में विभक्त है ।  

#  पहले अध्याय से चौथे अध्याय के सातवें सूत्र तक वैदिक छन्दो का प्रतिपादन किया गया है । 

#  चतुर्थ अध्याय के आठवें सूत्र से आठवें अध्याय तक लौकिक छन्दों का वर्णन है । 

#  छन्द सूत्र पर हलायुध ने मृतसंजीवनी टीका लिखी है ।


#  वैदिक छन्द मुख्यतः दो प्रकार के हैं -

1. केवल अक्षरगणनानुसारी 2.पादाक्षरगणनानुसारी ।

#  केवल अक्षरगणनानुसारी छन्दों में केवल अक्षरों की गणना की जाती है, जबकि पादाक्षरगणनानुसारी छन्दों में पाद में स्थित अक्षरों की गणना की जाती है।

 

# समस्त वैदिक छन्दों की संख्या 26 मानी गई है । इनके आरम्भिक पाँच छन्द वेद में प्रयुक्त नहीं हैं ।

 

 

6. ज्योतिष – JYOTISH


# यज्ञ के सम्पादन के लिए विशिष्ठ समय का ज्ञान आवश्यक है । यज्ञ अनुष्ठान के लिए उपयुक्त समय एवं ग्रह ज्ञान के लिए ज्योतिष की महती आवश्यकता होती है, अतः ज्योतिष को वेदाङ्ग के रूप में स्वीकार किया गया है । ज्योतिष वेद का नेत्र है ।

# “वेदाङ्ग ज्योतिष” नामक ग्रन्थ को वेदांग के रूप में स्वीकारा गया है । यह ग्रन्थ ज्योतिषशास्त्र का प्राचीन ग्रन्थ है । इसके रचयिता 'लगध मुनि' हैं ।

#  इस ग्रन्थ के दो पाठ मिलते हैं – 1. याजुस् ज्योतिष      2. आर्च ज्योतिष ।

# यजुर्वेद से सम्बन्धित याजस् ज्योतिष है ।

# ऋग्वेद से सम्बन्धित “आर्च ज्योतिष” है ।

# याजुस् ज्योतिष में 432 श्लोक हैं और आर्च ज्योतिष में 36 श्लोक हैं ।

# इस ग्रन्थ पर शंकर बालकृष्णन की टीका “भारतीय ज्योतिष”,  तिलक की अंग्रेजी टीका “वेदाङ्ग ज्योतिष” तथा सुधाकर द्विवेदी की टीका “वेदाङ्ग ज्योतिष” प्रसिद्ध हैं ।


धन्यवाद ।

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