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माहेश्वर सूत्र । Maaheshwara Sutra, पाणिनि माहेश्वर सूत्र। paanini maaheshwara sutra

माहेश्वर सूत्र  Maaheshwara Sutra


माहेश्वर सूत्र maaheshwara sutra
 माहेश्वर-सूत्राणि-

        
”महेश्वराद् आगतानि सूत्राणि” अर्थात् महेश्वर (शिव) से आए हुए सूत्रों को माहेश्वर सूत्र कहते हैं । माहेश्वर सूत्र संस्कृत व्याकरण के आधार  हैं । इन सूत्रों का प्रयोग पाणिनि जी के ग्रन्थ अष्टाध्यायी में दिखाई देता है । ”अष्टाध्यायी”  पाणिनि रचित संस्कृत व्याकरण का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसमें आठ अध्याय हैं । इसका भारतीय भाषाओं के साथ विश्व की अनेक भाषाओं पर बहुत बड़ा प्रभाव है । साथ ही इसमें यथेष्ट इतिहास विषयक सामग्री भी उपलब्ध है ।

अष्टाध्यायी एक परिचय –


            
अष्टाध्यायी (अष्टाध्यायी = आठ अध्यायों वाली) महर्षि पाणिनि द्वारा रचित संस्कृत व्याकरण का एक अत्यंत प्राचीन ग्रंथ (५०० ई पू) है। इसमें आठ अध्याय हैं; प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं; प्रत्येक पाद में 38 से 220 तक सूत्र हैं। इस प्रकार अष्टाध्यायी में आठ अध्याय, बत्तीस पाद और सब मिलाकर लगभग 3993 सूत्र हैं। अष्टाध्यायी पर महामुनि कात्यायन का विस्तृत वार्तिक ग्रन्थ है और सूत्र तथा वार्तिकों पर भगवान पतञ्जलि का विशद विवरणात्मक ग्रन्थ महाभाष्य है। संक्षेप में सूत्र, वार्तिक एवं महाभाष्य तीनों सम्मिलित रूप में 'पाणिनीय व्याकरण' कहलाता है और सूत्रकार पाणिनि, वार्तिककार कात्यायन एवं भाष्यकार पतञ्जलि - तीनों व्याकरण के 'त्रिमुनि' कहलाते हैं ।
           
     अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं । प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। पहले-दूसरे अध्यायों में संज्ञा और परिभाषा संबंधी सूत्र हैं एवं वाक्य में आए हुए क्रिया और संज्ञा शब्दों के पारस्परिक संबंध के नियामक प्रकरण भी हैं, जैसे क्रिया के लिए आत्मनेपद-परस्मैपद-प्रकरण, एवं संज्ञाओं के लिए विभक्ति, समास आदि। तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायों में सब प्रकार के प्रत्ययों का विधान है। तीसरे अध्याय में धातुओं में प्रत्यय लगाकर कृदंत शब्दों का निर्वचन है और चौथे तथा पाँचवे अध्यायों में संज्ञा शब्दों में प्रत्यय जोड़कर बने नए संज्ञा शब्दों का विस्तृत निर्वचन बताया गया है। ये प्रत्यय जिन अर्थविषयों को प्रकट करते हैं उन्हें व्याकरण की परिभाषा में वृत्ति कहते हैं, जैसे वर्षा में होनेवाले इंद्रधनु को वार्षिक इंद्रधनु कहेंगे। वर्षा में होनेवाले इस विशेष अर्थ को प्रकट करनेवाला "इक" प्रत्यय तद्धित प्रत्यय है। तद्धित प्रकरण में 1,190 सूत्र हैं और कृदंत प्रकरण में 631। इस प्रकार कृदंत, तद्धित प्रत्ययों के विधान के लिए अष्टाध्यायी के 1,821 अर्थात् आधे से कुछ ही कम सूत्र विनियुक्त हुए हैं। छठे, सातवें और आठवें अध्यायों में उन परिवर्तनों का उल्लेख है जो शब्द के अक्षरों में होते हैं । ये परिवर्तन या तो मूल शब्द में जुड़नेवाले प्रत्ययों के कारण या संधि के कारण होते हैं। द्वित्व, संप्रसारण, संधि, स्वर, आगम, लोप, दीर्घ आदि के विधायक सूत्र छठे अध्याय में आए हैं। छठे अध्याय के चौथे पाद से सातवें अध्याय के अंत तक अंगाधिकार नामक एक विशिष्ट प्रकरण है जिसमें उन परिवर्तनों का वर्णन है जो प्रत्यय के कारण मूल शब्दों में या मूल शब्द के कारण प्रत्यय में होते हैं। ये परिवर्तन भी दीर्घ, ह्रस्व, लोप, आगम, आदेश, गुण, वृद्धि आदि के विधान के रूप में ही देखे जाते हैं। अष्टम अध्याय में, वाक्यगत शब्दों के द्वित्वविधान, प्लुतविधान एवं
षत्व और णत्वविधान का विशेषत: उपदेश है ।

माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति :-

       माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शिव) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से मानी गयी है -
           नृत्तावसाने नटराजराजो 
                       ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्  
           उद्धर्त्तु कामो सनकादि सिद्धा
                       नेतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्  ।।
       अर्थात् :- “नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना का उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपञ्च (चौदह) बार डमरू बजाया। इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) प्रकट हुयी।”
         अत्र सर्वत्र सूत्रेषु अन्त्यवर्णचतुर्दशम्  
         धात्वर्थं समुपादिष्टं पाणिन्यादीष्टसिद्धये  ।।

   डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ। इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है। प्रसिद्धि है कि महर्षि पाणिनि ने इन सूत्रों को देवाधिदेव शिव के आशीर्वाद से प्राप्त किया जो कि पाणिनीय संस्कृत व्याकरण का आधार बना।

माहेश्वर सूत्र -

  माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या 14 है जो निम्नलिखित हैं:-
                1. अ इ उ ण्
                2. ऋ लृ क्
                3. ए ओ ङ्
                4. ऐ औ च्
                5. ह य व र ट्
                6. ल ण्
                7. ञ म ङ ण न म्
                8. झ भ ञ्
                9. घ ढ ध ष्
                10. ज ब ग ड द श्
                11. ख फ छ ठ थ च ट त व्
                12. क प य्
                13. श ष स र्
                14. ह ल्
      इन सूत्रों में ’ह’ वर्ण ही दो बार प्रयुक्त हुआ है, बाकी सभी अक्षर एक बार ही प्रयुक्त हुए हैं । उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण की इत् संज्ञा श्री पाणिनि ने की है। इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया में इनकी गणना नही की जाती है अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है, अर्थात् हमें प्रत्येक सूत्र के अन्तिम अक्षर को स्वीकार नहीं करना है, जैसे- प्रथम सूत्र है “अइउण्” । इस सूत्र में  ‘अ इ उ’ इन वर्णों को ही स्वीकार करना है ।

माहेश्वर सूत्रों की व्याख्या -

    माहेश्वर सूत्र मुख्य रुप से दो भागों में विभक्त हैं-

   (1) सूत्र एक से चार तक स्वर हैं ।

   (2) सूत्र पाँच से चोदह तक व्यंजन हैं ।  विस्तार से जानते हैं-

सूत्र 1 से 4 तक  सभी स्वर -

      1. अ इ उ ण्   2. ॠ ॡ क्     3. ए ओ ङ्      4. ऐ औ च्
   इन चार सूत्रों में ‘अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ’ ये स्वर अक्षर आए हैं । इन स्वरों को अच् भी कहते हैं, अर्थात् अच् कहते ही हमें स्वर समझने चाहिए, तभी तो स्वर सन्धि को अच् सन्धि भी कहते हैं ।

सूत्र 5 से 14 तक  सभी व्यंजन –

5. ह य व र ट्      6. ल ण्      7. ञ म ङ ण न म्  
8. झ भ ञ्      9. घ ढ ध ष्         10. ज ब ग ड द श् 
11. ख फ छ ठ थ च ट त व्       12. क प य्
13. श ष स र्        14. ह ल्

     इन दस सूत्रों में सारे व्यंजन वर्ण हैं । इन व्यंजन वर्णों को ‘हल्’ भी कहते हैं, क्योंकि पंचम सूत्र का पहला अक्षर ‘ह’ है और अन्तिम चोदहवें सूत्र का अन्तिम अक्षर ‘ल्’ है, अत: ये मिलकर ‘हल्’ इस सरल रूप में प्रयोग किए जाते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि व्यंजनों को ‘हल्’ भी कहते हैं ।

            यदि हम इन दस सूत्रों को ध्यान से देखें तो इसमें हमें वर्णमाला क्रम के अनुसार अक्षर नहीं मिलेंगे अपितु यहाँ भिन्न क्रम है । वह क्रम कुछ इस प्रकार है-

   # सूत्र 11 व 12 में वर्णमाला के वर्ग का पहला व दूसरा अक्षर है- 
11. ख फ छ ठ थ च ट त व्    12. क प य् । वर्ग का दूसरा अक्षर- ख, फ, छ, ठ, थ । वर्ग का पहला अक्षर च, ट, त, क, प ।
           
  # सूत्र 10 में वर्ग का तृतीय अक्षर है- 10. ज ब ग ड द श् । वर्ग का तृतीय अक्षर ज ब ग ड द ।
         
  # सूत्र 8 व 9 में वर्ग का चतुर्थ अक्षर है- 8. झ भ ञ्      9. घ ढ ध ष्  । वर्ग का चतुर्थ अक्षर झ भ घ ढ ध ।
         
  # सूत्र 7  में वर्ग का पंचम अक्ष्रर है- 7. ञ म ङ ण न म् । वर्ग का पंचम ञ म ङ ण न ।
       
  # सूत्र 5, 6, 13 व 14 में  अन्तःस्थ व ऊष्म व्यंजन हैं-  5. ह य व र ट्      6. ल ण्   13. श ष स र्   14. ह ल् ।  अन्तःस्थ वर्ण – य,  र, ल,  व    ऊष्म  वर्ण-   श, ष,  स,  ह ।

     उपर्युक्त्त 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है। फलतः, महर्षि पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं। माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं। प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।

     प्रत्याहार-

       “प्रत्याहार” का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन । अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का श्री पाणिनि ने निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्सञ्ज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।

उदाहरण:-

            अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है। यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है। अतः,
अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।
            इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि 5वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ‘ह’ को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।
            उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण की इत् संज्ञा श्री पाणिनि ने की है। इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है।

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