आदिकाल की सम्पूर्ण जानकारी
Complete information about Aadikal
हिन्दी साहित्य के आरंभिक काल को आदिकाल कहा जाता है । हिन्दी साहित्य
के आरंभिक समय की रचनाएँ साहित्य के विकास के अध्ययन के लिए अत्यंत आवश्यक है । परंतु
अधिकांश आदिकालीन ग्रंथों का उपलब्ध न होना, प्रमाणिकता में संदिग्धता, कालनिर्धारण
में सामंजस्य न बैठना आदि कठिनाईयों के साथ साहित्य के विद्वानों, आचार्यों द्वारा
व्यवस्थित धारणा बना लेना बहुत ही कुशलता का कार्य है । इस पोस्ट में
Aadikal |
आदिकाल का नामकरण-
Aadikaal ka Namkaran-
हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों द्वारा आदिकाल के निम्न नाम दिए गए हैं-
(1)
वीरगाथा काल |
आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल |
(2)
आदिकाल |
हजारी
प्रसाद द्विवेदी |
(3)
चारणकाल |
जार्ज ग्रियर्सन डॉ. रामकुमार वर्मा |
(4)
बीज वपन काल |
महावीर
प्रसाद द्विवेदी |
(5)
सिद्ध सामन्त युग |
राहुल
सांकृत्यायन |
(6)
आरम्भिक काल |
मिश्र
बन्धु |
(7)
प्रारम्भिक काल |
डॉ.
गणपति चन्द्र गुप्त |
(8)
वीरकाल |
विश्वनाथ
प्रताप मिश्र |
हिन्दी साहित्य का आदिकाल जिसे वीरगाथा काल, चारणकाल, सिद्ध सामन्त
युग, बीजवपन काल, वीरकाल आणि अनेक संज्ञाओं से विभूषित किया है, हिन्दी का सबसे विवादग्रस्त
काल रहा है । इस काल में एक तरफ संस्कृत के ऐसे बड़े-बड़े कवि उत्पन्न हुए जिनकी रचनाएँ
संस्कृत काव्य-परम्परा की चरम सीमा पर पहुँच गयी थी तो दूसरी ओर अपभ्रंश के कवि उत्पन्न
हुए जो अत्यन्त सरल एवं सहज भाषा में अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में अपने मार्मिक भाव
प्रकट कर रहे थे। वस्तुतः इस काल में जहाँ एक ओर सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य का निर्माण
हुआ जिसे धर्माश्रय प्राप्त होने के कारण वह फूलता-फलता रहा. वहाँ दूसरी ओर राजस्थान
के चारण कवियों द्वारा चरित काव्य भी रचे गये, जिन्हें राजाश्रय मिलने के कारण वह प्रशंसा
का विषय बना । परन्तु इस काल में इन दोनों काव्य-धाराओं से भिन्न लोक साहित्य की भी
रचना हुई, वह लोकाश्रित होने से सुरक्षित न रह सका। अनेक कारणों से यह साहित्य लुप्त
सा हो गया। उससे इतना अवश्य ज्ञात होता है कि आदिकाल में लोक साहित्य भी लोक प्रचलित
रहा है ।
आदिकाल साहित्य की परिस्थितियाँ-
Aadikal ki paristithiyan-
आदिकाल राजनीतिक दृष्टि से युद्ध व अशान्ति का काल था । राजपूत निरन्तर
युद्धों में लगे रहते थे । विदेशी लोगों ने भी इस काल में अनेक आक्रमण किए । इस काल
में अनेक धार्मिक मत-मतान्तरों का अस्तित्व था । आदिकाल के समय वैदिक – पौराणिक धर्म
के साथ जैन व बौद्ध धर्म भी अपना प्रभाव जमा रहे थे । धार्मिक रुप से सिद्ध सम्प्रदाय,
नाथ सम्प्रदाय व जैन सम्प्रदाय परिलक्षित हो रहे थे । इस काल में शासन और धर्म की और
से जनता निराश हो रही थी । राजपूतों की वीरता आपसी प्रतिस्पर्धा व संघर्ष में ही नष्ट
हो रही थी । इस प्रकार की परिस्थितियों से ही उस समय के साहित्य का सृजन हुआ ।
आदिकाल की प्रवृत्तियाँ-
Aadikal ki Pravritiyan-
1.
आदिकालीन काव्यों में युद्ध का सजीव वर्णन किया गया है, क्योंकि उस
समय के कवि राजा के दरबारों में ही रहते थे और युद्ध के समय युद्ध में लड़ने भी जाते
थे ।
2. आदिकालीन साहित्य में ऐतिहासिकता की रक्षा नहीं की गई है । उस समय की अधिकांशतः कव्यों के वर्णन इतिहास से मेल नहीं खाते हैं ।
3. आदिकाल के समय छोटे-छोटे राज्य होते थे, सभी राजा और राज्य के लोग अपने राज्य की उन्नति के बारे में सोचते थे, अतः आदिकाल के समय राष्ट्रीयता की भावना का अभाव था ।
4. आदिकालीन साहित्य तथ्यपरक न होकर कल्पना प्रधान थे । ऐतिहासिक पात्र होने पर भी इन काव्यों में इतिहास नाम मात्र का है ।
5. आदिकालीन साहित्य में शृंगार व वीर रस का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है । उस समय होने वाले युद्धों से वीर रस का वर्णन व राजाओं द्वारा राजकन्याओं से होने वाले विवाह से शृंगार रस का वर्णन स्वाभाविक रूप से हुआ है ।
6. आदिकालीन साहित्य में डिंगल-पिंगल भाषा का विशेषत: रासो साहित्य में हुआ है । अपभ्रंश व राजस्थानी भाषा के मिले-जुले रूप को डिंगल कहते हैं और अपभ्रंश व ब्रज भाषा के मिले जुले-रूप को पिंगल कहते हैं ।
7. आदिकालीन साहित्य के रासो काव्यों में अलंकारों का प्रयोग पाण्डित्य प्रदर्शन के लिए नहीं हुआ है अपितु अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक रूप से हुआ है ।
आदिकालीन साहित्य का विभाजन-
Aadikal ke Sahitya ka Vibhajan-
आदिकालीन साहित्य को तीन भागों में बाँटा गया है-
धार्मिक साहित्य |
लौकिक साहित्य |
रासो साहित्य |
1. सिद्ध साहित्य |
1. ढोला मारु रा दूहा |
1. खुमाण रासो |
2. नाथ सहित्य |
2. वसंत विलास |
2. बीसलदेव रासो |
3. जैन साहित्य |
3. राउल वेल |
3. परमाल रासो |
|
4. उक्ति व्यक्ति प्रकरण |
4. हम्मीर रासो |
|
5. वर्ण रत्नाकर |
5. पृथ्वीराज रासो |
|
6. खुसरो का काव्य |
6. विजयपाल रासो |
|
7. विद्यापति पदावली |
|
अब
क्रम से आदिकालीन साहित्य से परिचित होते हैं-
1.
सिद्ध साहित्य- Siddh Sahitya
रचना |
रचनाकार |
दोहाकोश |
सरपहा |
चर्यापद |
शबरपा |
डोम्बिगीतिका योगचर्या अक्षरद्विकोपदेश |
डोम्भिपा |
2. नाथ साहित्य- Nath Sahitya
गोरखनाथ नाथ साहित्य
के आरम्भकर्ता माने जाते हैं । गोरखनाथ के द्वारा रचित 40 रचनाएँ मानी जाती हैं । इनकी
प्रमुख रचनाएँ निम्न हैं- सबदी, पद, प्राण संकली, सिवयादरसन, नरवैबोध, अभैमात्राजोग,
सप्तवार, रोमावली आदि ।
3. जैन साहित्य- Jain Sahitya
जैन साहित्य की प्रमुख रचनाएँ-
रचना |
रचनाकार |
1. भरतेश्वर बाहुबली रास |
शालिभद्र सूरि |
2. बुद्धि रास |
शालिभद्र सूरि |
3. स्थूलिभद्र रास |
जिनि धर्म सूरि |
4. जीव दया रास |
आसगु |
5. जिनि पद्म सूरि रास |
सारमूर्ति |
6. गौतम स्वामी रास |
उदयवन्त |
7. पंच पाण्डव चरित रास |
शालिभद्र सूरि |
8. श्रावकाचार |
देवसेन |
9. चन्दनबाला रास |
आसगु |
10. रेवन्तगिरि रास |
विजयसेन सूरि |
11. नेमिनाथ रास |
सुमति गणि |
4. आदिकालीन लौकिक साहित्य-
5. रासो काव्य- Raso Kavya
#
“आचार्य रामचन्द्र शुक्ल” इस शब्द की व्युत्पत्ति 'रसायण' से मानते है। उनका कहना है
कि- "कुछ लोग इस शब्द का सम्बन्ध 'रहस्य' से जोड़ते हैं । पर 'बीसलदेव रासो' में
काव्य के अर्थ में 'रसायण' शब्द बार-बार आया है । अतः इसी 'रसायण' शब्द से होते होते
'रासो' हो गया है ।
# प्राचीन राजस्थानी में 'रसिक' का अर्थ कथा-काव्य माना जाता था। यही शब्द क्रमश: 'रासउ', और 'रासो' हो गया। यह मत हमें सत्य के काफी नजदीक पहुँचा देता है ।
# प्रधान रूप से कथा-ग्रन्थों के लिए ही 'रासा', 'रासक', 'रासो' शब्द का प्रयोग होता आया है । कुछ विद्वान इस शब्द का सम्बन्ध 'रास' या 'रासक' से जोड़ते हुए इसका अर्थ-ध्वनि, क्रीडा, विलास, नृत्य, गर्जन और श्रृन्खला देते है ।
# आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी रासक को एक शब्द भी मानते हैं और काव्य-भेद भी उनके अनुसार जो काव्य रासक छन्द में लिखे जाते थे, वे ही हिन्दी में 'रासो' कहलाने लगे ।
रासो साहित्य मूलतः सामंती-व्यवस्था, प्रकृति और संस्कार से उपजा हुआ साहित्य है, जिसे 'देशीभाषा काव्य' के नाम से भी जाना जाता है । इस साहित्य के रचनाकार हिन्दू राजपूत राजाश्रय में रहनेवाले चारण या भाट थे । समाज में उनका स्थान और सम्मान था, क्योंकि उनका जुडाव सीधे राजा से होता था । ये चारण या भाट कलापारखी और कलारचना में निपुण होते थे । ये कुशलता से युध्द करना भी जानते थे और युद्ध शुरु होने पर अपनी सेना की अगुवाई विरुदावली गा- गाकर किया करते थे । ये राजाओं, आश्रयदाताओं, वीर पुरुषों तथा सैनिकों के वीरोचित युद्ध घटनाओं को केवल बढ़ा चढ़ाकर ही नहीं, उसकी यथार्थपरक स्थितियों एवं सन्दर्भों को भी बारीकी के साथ चित्रित करते थे । वीरोचित भावनाओं के वर्णन के लिए इन्होने रासक या रासो छन्द का प्रयोग किया था ।
रासो साहित्य की प्रमुख रचनाएँ-
1. खुमाण रासो-
रासो काव्य परम्परा की प्रारम्भिक रचनाओं में खुमाणरासो' का स्थान सर्वोपरि है । इसके रचयिता दलपति विजय हैं । इसका सर्वप्रथम उल्लेख शिवसिंह सेंगर की कृति 'शिवसिंह सरोज' में मिलता है । इसमें राजस्थान के चितौड़-नरेश खुमण (खुम्माण) द्वितीय के युद्धों का सजीव वर्णन किया गया है । खुमाण रासो 'पाँच हजार छन्दों का एक विशाल ग्रन्थ हैं ।
2. परमाल रासो-
3. हम्मीर रासो-
'हम्मीर रासो' अभी तक एक स्वतंत्र कृति के रूप में उपलब्ध नहीं हो सका
है । अपभ्रंश के प्राकृत पॅगलम्' नामक एक संग्रह ग्रन्थ में संग्रहीत हम्मीर विषयक
८ छन्दों को देख आ. शुक्लजी ने इसे एक स्वतंत्र ग्रन्थ मान लिया था । प्रचलित धारणा
अनुसार इस कृति के रचयिता शारंघधर माने जाते है । इस काव्य में हम्मीर देव और अल्लाउद्दीन
के युध्द का वर्णन किया गया है ।
4. विजयपाल रासो-
5. बीसलदेव रासो-
'बीसलदेव रासो' इस काव्य परम्परा की प्रमुख कृति है । इसके रचयिता नरपति
नाल्ह माने जाते हैं, जो अजमेर के चौहाण राजा बीसलदेव (विग्रहराज चतुर्थ) के समकालीन
थे । इसमें अजमेर नरेश विग्रहराज उपनाम बीसलदेव और उनकी पत्नी राजा भोज की पुत्री राजमती
के विवाह, कलह, विरह और मिलन के मार्मिक चित्र अंकित किये गये हैं । इस ग्रन्थ सबसे
निराली विशेषता यह है कि यह हिन्दी के अन्य रासों ग्रन्थों के समान वीरता का प्रशस्तिगायन
न होकर कोमल प्रेम के मधुर, मार्मिक और संवेदनशील रूप का अमर चित्र है । विप्रलम्भ-श्रृगार
इसका प्रधान वर्ण्य विषय है । चार खण्डों में विभाजित 125 छन्दों का यह छोटा सा काव्य
प्रणय सम्वेदना का द्रवणशील, हृदयग्राही रूप प्रस्तुत करता है ।
6. पृथ्वीराज रासो-
रासो काव्य परम्परा का सर्वश्रेष्ठ एवं प्रतिनिधि ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो है । आ.. शुक्लजी ने इसे हिन्दी का प्रथम महाकाव्य और इसके रचयिता चंदबरदाई को हिन्दी का प्रथम कवि माना है । चंदबरदाई दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहाण के प्रमुख सामंत सलाहकार, मित्र और राज कवि थे । इनके विषय में प्रसिद्ध है कि पृथ्वीराज और चंदवरदाई दोनों का जन्म एक ही दिन और मृत्यु भी एक ही दिन हुई थी । कवि चन्द के चार पुत्र थे, जिनमें से चतुर्थ पुत्र जहण था । जिस समय पृथ्वीराज को मुहम्मद गौरी बन्दी बनाकर गजनी ले गया तो उस समय चन्दबरदाई भी उसके पीछे गए और अपने पुत्र जल्हण को अपनी अधूरी रचना 'पृथ्वीराज रासो' सौंप गए थे । इस सम्बन्ध में यह उक्ति प्रसिद्ध है-
'पुस्तक जल्हण हाथ दें, चलि गज्जन नृप काज।' बाद में जहण ने इस अधूरी
रचना को पूरा किया था ।
पृथ्वीराज रासो के बृहत, मध्यम, लघु और लघुतम चार संस्करण प्रसिद्ध हैं । इसे महाभारत के समान विकसनशील महाकाव्य माना जाता है । इस की दृष्टि से इसमें श्रृंगार और वीर रस दोनों का सुन्दर परिपाक हुआ है । ये दोनों रस पृथ्वीराज चौहाण के व्यक्तित्व के दो पहलुओं को उद्घाटित करते है । वीर और श्रृंगार रस दोनों रसों की पृष्ठभूमि में नारी है। उसे पाने के लिए युध्द होते है और पा लेने पर जीवन का विलास पक्ष अपनी पूरी रमणीयता के साथ उभरता है । युध्द वर्णन में जहाँ कवि ने शौर्य एवं वीरता के प्रदर्शन में अपनी कलम की शक्ति दिखाई है वहाँ श्रृंगार रस सरस वर्णनों में भी अपनी अदभूत कल्पना शक्ति का परिचय दिया है । वीर वर्णन हो अथवा श्रृंगार रस का, कवि ने नैतिकता की सीमा का उल्लंघन नहीं किया है, जिससे दोनों रसों का निर्वाह संतुलित एवं सात्विक हुआ है ।
आदिकाल हिन्दी का पहला कवि-
Aadikal Hindi ka pahala kavi-
# राहुल सांकृत्यायन ने 7वीं शताब्दी के कवि “सरहपाद” को हिन्दी का पहला कवि माना है ।
# डा. शिवसिंह सेंगर ने 7वीं शताब्दी के “पुष्य या पुण्य” नामक कवि को हिन्दी का प्रथम कवि माना है ।
# डा. गणपति चन्द्र गुप्त शालिभद्र सूरि को हिन्दी का प्रथम कवि मानते हैं । इनकी रचना भरतेश्वर बाहुबली है ।
धन्यवाद ।
1 Comments
mind blowing
ReplyDeleteसाथियों ! यह पोस्ट अपको कैसे लगी, कमेंट करके अवश्य बताएँ, यदि आप किसी टोपिक पर जानकारी चाहते हैं तो वह भी बता सकते हैं ।